डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
हिंदू एवं बौद्ध धर्म की भांति ही जैन धर्म में भी विभिन्न देवी एवं देवताओं का उल्लेख आता है। इन देवी एवं देवताओं को अधिष्टायिका देव-देवी, यक्ष – यक्षिणी व शासन देव-देवी आदि नामों से जाना जाता है। जैन ग्रन्थों में उल्लेखित प्रत्येक चौबीस तीर्थंकरों के अलग-अलग शासन देव और शासन देवियां होती हैं। जैन आगम के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर के समवशरण के उपरांत इन्द्र द्वारा प्रत्येक तीर्थंकर के सेवक देवों के रूप में एक यक्ष -यक्षिणी को नियुक्त किया गया है। हरिवंश पुराण के अनुसार इन शासन देव-देवीयों के प्रभाव से शुभ कार्याें में बाधा डालने वाली शक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं।
गंधर्वपुरी (देवास) मध्यप्रदेश के संग्रहालय में एक चक्रेश्वरी प्रतिमा है, जो संभवतः अपने समय में देश की एकमात्र प्रतिमा रही होगी। इस प्रतिमा में कई विशेषताएँ हैं। प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की शासनदेवी चक्रेश्वरी की यह अद्वितीय मूर्ति गंधर्वपुरी से प्राप्त जैन प्रतिमाओं में विशेष स्थान रखती है। प्रस्तुत प्रतिमा के बीस हाथों में से अधिकतर हाथ खंडित हो गए हैं। किन्तु बचे हुए हाथों में अन्य आयुधों के साथ दो हाथों में चक्रपूर्ण रूप से स्पष्ट हैं, जिनके पकड़ने का ढंग भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। देवी अनेक आभूषणों से सुसज्जित है, इनके शीश के पीछे प्रभा मंडल है, जिसके दोनों ओर विद्याधर युगल निर्मित हैं। प्रतिमा के ऊपरी भाग में निर्मित पाँच ताकों में तीर्थंकरों की ध्यानस्थ लघु मूर्तियाँ हैं। डॉ. नरेश पाठक ने इसका निकटता से अध्ययन कर देखा है कि इस देवी के दाहिने पैर के समीप उनका वाहन गरुड़ अपने बायें हाथ में सर्प पकड़े हुए है, जबकि उनके बायीं ओर एक सेविका की खंडित मूर्ति विद्यमान है और इस देवी के बीस भुजाएं हैं।
प्रायः जिस तीर्थंकर की अधिष्टायिका शासनदेवी होती है, उसी तीर्थंकर की प्रतिमा उस देवी के शिरोभाग पर उत्कीर्णित करने की परम्परा है, किन्तु इस देवी के वितान में अलग अलग देवकुलिकाओं में पाँच लघु जिन उत्कीर्णित हैं।
निर्वाणकलिका, पद्मानंदमहाकाव्य, मंत्राधिराजकल्प, रूपमण्डन, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार, प्रतिष्ठातिलक, अपराजितप्रच्छा, देवतामूर्तिप्रकरण आदि जिन प्रतिमा शास्त्रों में देव-देवियों का निरूपण है, उनमें चक्रेश्वरी देवी के दो भुजाओं से बारह भुजाओं तक का विधान है, किन्तु इस प्रतिमा की बीस भुजाएँ होना इसे देवमूर्तिशिल्प में विशेष स्थान प्रदान करती हैं। बलुआ पाषाण में निर्मित इस मूर्ति का समय 10-11वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है।